विपश्यना शिविरों में धर्मसेवकों के लिए आचार-संहिता

कृपया निम्न जानकारी धम्मसेवा के लिए आने से पहले जरूर पढ़े। आपको धर्म-सेवा का पूरा लाभ मिलें ऐसी हम शुभकामना करते हैं।

निःस्वार्थ सेवा

निःस्वार्थ सेवा धम्मपथ पर चलने के लिए और आगे बढ़ने के लिए महत्त्वपूर्ण अंग है, एक अनिवार्यता है। विपश्यना (Vipassana) का अभ्यास धीरे-धीरे अपने मनोविकारों को दूर करता है और अंततः आंतरिक शांति एवं सुख अनुभव होने लगता है। यह दुःखों की विमुक्ति मात्र आंशिक ही हो परंतु फिर भी इससे धर्म की अद्भुत विधि और इसको सिखाने वाले के प्रति कृतज्ञता का भाव तो जागता ही है। परिणाम स्वरूप ऐसी धम्म-कामना जागती है कि औरों को भी इस मंगलमय धम्म-पथ पर चलने में मैं किस प्रकार सहायक बनूं। इस उदात्त अभिलाषा से प्रेरित होकर जब स्वयं को शिविर संयोजन के कार्य-कलापों में भाग लेने के लिए समर्पित करता है, तो उसे “धम्मसेवक” कहा जाता है और शिविर संयोजन का हर कार्य “धम्मसेवा”। बिना किसी अपेक्षा के धम्म-सेवा देते देते, हमें अपनी कृतज्ञता-ज्ञापन का एक अवसर मिलता है जब शिविरों में साधक धम्म(Dhamma) के संपर्क में आते हैं। वास्तव में दूसरों की निःस्वार्थ सेवा से हम अपनी सेवा भी करते हैं क्योंकि इससे हमारी दस पारमिताओं का विकास होता है और अपना अहंभाव पिघलता है।

धर्मसेवा कौन कर सकता है?

जिस किसी साधक ने पूज्य गुरुजी या उनके किसी सहायक आचार्य के साथ सफलतापूर्वक तीन दस-दिवसीय शिविर पूर्ण किये हों (यह नियम किसी विशेष स्थिति में कुछ शिथिल भी किया जा सकता है।), वह धर्मसेवा दे सकता है। ऐसे व्यक्ति ने अपने अंतिम शिविर के पश्चात किसी अन्य विधि को न अपनाया हो।

अनुशासन संहिता

धर्मसेवकों को साधकों हेतु बनी अनुशासन संहिता का यथासंभव पालन करना चाहिए। कतिपय विशिष्ट परिस्थितियों में यदि किंचित छूट आवश्यक हो तो दी जा सकती है।

पंचशील

पंचशील का पालन अनुशासन संहिता की आधारशीला है। प्राणी-हिंसा से विरत रहना, चोरी से विरत रहना, व्यभिचार से विरत रहना—अर्थात स्त्री पुरुष का पूर्ण पार्थक्य तथा शारीरिक संपर्क से बचना, मिथ्या भाषण से विरत रहना (झूठ, चुगली, निंदा, कटु वचन से विरत रहना), सभी प्रकार के नशे-पते से विरत रहना।

ये पांचों शील का पालन विपश्यना केंद्र में या अस्थायी शिविर स्थान पर रहने वाले व्यक्तियों के लिए अनिवार्य हैं और इनका कडाई से पालन करना चाहिए। धमासेवकों से यह आशा की जाती है कि वे सामान्य जीवन में भी पंचशील का पालन करने का पूरा पूरा प्रयत्न करते हो।

निर्देशों की अनुपालना

धम्म सेवकों को आचार्य, सहायक आचार्य एवं केंद्र के व्यवस्थापक के निर्देशों का यथावत पालन करना चाहिए। बड़ों के सुझाव एवं मार्गदर्शन को स्वीकार करना चाहिए। जिम्मेदार लोगों के निर्देशों के विपरित अथवा बिना उनकी अनुमति लिए कामकाज की पद्धति में बदलाव एवं नये कार्यों की शुरुवात करने से भ्रांति फैलती है, शांति नष्ट होती है, अनावश्यक तणाव उत्पन्न होता है और समय, शक्ति एवं संसाधनों का दुरुपयोग होता है। ऐसे मनमाने ढंग से किया काम सहकार एवं सौमन्यसता के धार्मिक वातावरण के खिलाफ है। अपने व्यक्तिगत मतों को एक ओर रखकर धम्मसेवक को केंद्र शिविर की धम्मसेवा को सर्वोपरि मानते हुए एक अनुशासित सैनिक के समान समर्पित भाव से निर्देशों के अनुसार काम करना चाहिए। खुले मन से एवं विनम्रता के साथ समस्याओं पर चर्चा करनी चाहिए। अच्छे सुझावों का बड़ो द्वारा स्वागत ही होता है।

साधकों से संबंध

शिविर और साधना केंद्र साधकों को साधना सीखाने एवं उसमें पुष्ट होने का अवसर प्रदान करने के लिए होते हैं। इसलिए साधक सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति है जो सबसे महत्त्वपूर्ण काम कर रहे हैं। धम्मसेवकों का काम हर प्रकार से उनकी सहायता करना मात्र है। इसलिए साधकों को निवास, स्नानागृह, भोजन आदि सुविधाओं के उपयोग में प्राधान्य देना चाहिए। अत्यंत अनिवार्य न हो तो सेवकों को साधकों के भोजन के बाद ही भोजन लेना चाहिए एवं उन्हें साधकों के साथ भोजनालय में नहीं बैठना चाहिए। उन्हें साधक नहीं है तभी स्नानागार आदि का उपयोग करना चाहिए, साधकों के पश्चात शयन करना चाहिए ताकि कोई समस्या हो तो वे मदत कर सकें। अन्य सभी सुविधाओं का उपयोग भी साधकों के पश्चात ही करना चाहिए।

साधकों के प्रति व्यवहार

केवल पुरुष धम्मसेवक पुरुषों से एवं महिला धम्मसेविका महिलाओं से संपर्क करें। उन्हें खयाल रखना चाहिए कि क्या साधक अनुशासन एवं नियमावली का पालन कर रहे हैं या नहीं। आवश्यक हो तो उनसे बात करें। सौहार्दपूर्ण एवं विनम्र रहें। सकारात्मक शब्दों से साधकों को कठिनाईयों में से निकलने की प्रेरणा दें। अगर आप ऐसा न कर सकते हो तो अन्य किसी धम्मसेवक को संपर्क करने के लिए कहना चाहिए। अनुशासनहिनता दिखाई दे तो ठीकसे जांच लें, सतही तौर पर ही उसे वास्तविकता न समझ बैठें।

जब भी अपेक्षित हो, सहायता हेतु विनम्र भाव से तत्पर रहें। अच्छा हो अगर साधक का नाम पूछ लें। कम से कम बातचीत करें। विवाद में बिल्कुल न उलझें। विधिसंबंधी प्रश्नों के लिए सहायक आचार्य के पास संपर्क करने को प्रेरित करें। साधकों के साथ जो भी संपर्क हो उसकी जानकारी सहायक आचार्य को अवश्य दें। साधकों की निजि मामलों पर अन्य धम्मसेवकों से चर्चा न करें।

धम्मसेवकों की साधना

धम्मसेवक रंचमात्र भी समय का अपव्यय नहीं करें। सतर्कता के साथ सेवा में जुटे रहें। साथ ही वे साधना का अभ्यास अवश्य करते रहें। प्रत्येक धम्मसेवक दिन में कम-से-कम तीन घंटे साधना करे, यदि संभव हो तो सामूहिक साधना करे। इसमें दो बैठके ध्यानकक्ष में हों। तीसरी, यदि स्थान हो तो शून्यागार में हो। उन्हें रात्रि ९ बजे मैत्री सत्र में सम्मिलित होना अनिवार्य है। शिविर काल में विपश्यना ही करनी चाहिए लेकिन आवश्यकता होने पर आनापान कर सकते हैं। सामूहिक साधना के सत्र में वे चाहे तो आसन बदल सकते हैं।

धर्मसेवक आत्म-निरीक्षण करते रहें। वे हर स्थिति में समता रहने का प्रयत्न करें तथा अपने चित्त की चेतना को जांचें। थकान या अन्य किसी कारण से अगर वे ऐसा नहीं कर पा रहे हैं तो उन्हें साधना एवं विश्राम करना चाहिए, चाहे कितना ही कार्यभार उनपर हो। “मेरे बगैर काम होगा ही नहीं” ऐसी भावना न रखें। अपने भीतर शांति एवं सौमन्यसता है तो ही हम ठीक से धर्मसेवा कर पायेंगे। दीर्घकाल सेवा देने वाले धर्मसेवकों को समय-समय पर, अपना काम बाजू रखकर, दस दिवसीय शिविर करने चाहिए एवं धर्मसेवा दे रहे है इसलिए कोई विशेष सुविधा की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए।

सहायक आचार्य से विचार विमर्श

धम्मसेवक सहायक आचार्य से अपनी समस्या संबंधी विचार-विमर्श करते रहें। वार्तालाप का उचित समय रात्रिकालीन मैत्री-सत्र है। व्यक्तिगत वार्तालाप के लिए भी समय निर्धारित किया जा सकता है। सहायक आचार्य की अनुपस्थिति में कोई समस्या हो तो धम्मसेवक प्रबंधकसे संपर्क करे।

नर-नारी पार्थक्य तथा विभक्ती

स्री एवं पुरोषोंको पृथक रहनेका यह नियम हमेशा के लिए है, शिविर के दौरान एवं केंद्र पर शिविरों के बीच। कई विशिष्ट परिस्थितियों में धम्मसेवकों को संपर्क करना भी पड़े तो कम से कम बात करे एवं इस मेलजोल का अवसर न समझे। पति-पत्नि सेवा दे रहे हैं तब उनको भी इस नियम का पालन करना चाहिए।

शारीरिक संपर्क

केंद्र पर ध्यानानुकूल पवित्र वातावरण को बनाये रखने तथा साधकों के सामने एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए सभी धम्मसेवक महिला या पुरुष शारीरिक संपर्क से विरत रहें। यह नियम केंद्र पर सदैव दृढ़तापूर्वक पालन करें।

सम्यक वाणी

धम्मसेवकों को साधकों की तरह ही यथासंभव आर्यमौन का पालन करना चाहिए। उन्हें ध्यान परिसर में मौन रहना चाहिए एवं केवल आवश्यक बात करनी चाहिए। कोई साधक आसपास न हो या केंद्र पर कोई शिविर न चल रहा हो तो भी मौन का वातावरण बनाए रखें।

जब बोले तब धम्मसेवकों को सम्यक वाणी का उपयोग करना चाहिए— वे झूठ नहीं बोलें या सत्य को घटा-बढ़ाकर नहीं बोलें। वे कठोर या कड़वे शब्द उपयोग न करें। धम्म-पथ का पथिक सौम्य एवं मृदु भाषी होता है। वे निंदा व चुगली करने से बचें। अपने नकारात्मक भावों के कारण किसी अन्य की आलोचना न करें। कोई समस्या हो तो संबंधित व्यक्ति के सामने प्रकट की जायँ या सहायक आचार्य को बताया जाय। वे व्यर्थ की गपशप, अनर्गल चर्चा न करें। न गीत गुनगुनाएं, न सीटी बजाएं।

वे व्यर्थ की गपशप, अनर्गल चर्चा न करें। न गीत गुनगुनाएं, न सीटी बजाएं।

व्यक्तिगत परिधान

अन्य लोगों की दृष्टि में धम्मसेवक साधनाविधि एवं केंद्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस कारण धम्मसेवकों को सदैव स्वच्छ, संभ्रांत परिधान का उपयोग करना चाहिए और इस प्रकार के परिधान से विरत रहना चाहिए जिससे अंगप्रदर्शन हो अथवा विशेष आकर्षण उत्पन्न हो। अलंकारों का न्यूनतम प्रयोग हो। महिलाए सलवार कुर्ते के साथ दुपट्टा धारण करें। लुंगी पहनने वाले पुरुष ध्यान रखें कि यह आगे से पूरी तरह सिली हुई है तथा वे लंबा कुर्ता या कमीज पहनें।

धूम्रपान

धम्म को स्वीकारने वाले हर व्यक्ति से अपेक्षा की जाती है कि वह शराब, गांजा, चरस आदि नशे –पते का सेवन नहीं करेगा। तंबाकू का किसी भी रूप में सेवन केंद्र के परिसर में निषिद्ध है। धर्मसेवक धूम्रपान करने के लिए केंद्र के बाहर न जायँ।

भोजन

केंद्र पर आरोग्यदायी, शुद्ध शाकाहारी भोजन दिया जाता है। भोजन संबंधी किसी विशिष्ट फिलोसोफी का अनुयय नहीं होता है। साधकों की तरह धम्मसेवक भी जो कुछ दिया गया है उसे निष्क्रमणभाव से ग्रहण करें।

ऐसे पदार्थ जिन में शराब, अंडे, मांस इत्यादि का प्रयोग हो, केंद्र पर नहीं लाएं। सामान्यतया बाहर के खाद्य-पदार्थ केंद्र पर न लाए।

धम्मसेवक पंचशील रखते हैं। अतः चाहे तो शाम का भोजन कर सकते हैं। उपवास करना मना है।

पढ़ना

सेवक चाहे तो अखवार व पत्रिकाएं पढ़ सकते हैं, लेकिन वे ऐसा साधना स्थल से दूर निर्धारित क्षेत्र या सेवकों के निवास स्थान पर ही करें। मनोरंजन के लिए उपन्यास आदि पढ़ना सर्वथा मना है। यदि कोई समाचारों के अतिरिक्त कुछ और पढ़ना चाहें तो केंद्र के पुस्तकालय में उपलब्ध पुस्तकें पढ़ें। अन्य पुस्तकें पढ़ने से पूर्व केंद्र के आचार्य को दिखा दें।

बाह्य संपर्क

साधकों की तरह धम्मसेवकों के लिए यह आवश्यक नहीं कि वे बाह्य जगत से कटे रहें। परंतु जहांतक हो सके अनिवार्य स्थिति को छोड़कर बाह्य संपर्क (फोन से भी) दूर रहें। सेवा देते हुए केंद्र छोड़कर बाहर जाना आवश्यक हो तो सहायक आचार्य की अनुमति लेकर ही जायं। धम्मसेवकों के व्यक्तिगत अतिथि व्यवस्थापक की पूर्व अनुमति प्राप्त करके ही मिलने आ सकते हैं।

केंद्र की स्वच्छता

केंद्र को साफसुथरा रखना धर्मसेवकों का कर्तव्य है। ध्यानकक्ष, चैत्य, निवास-स्थान, भोजनालय, शौचालय, स्नानागार तथा परिसर के स्वच्छ रखें। सेवकों को नियमित कार्य के अलावा अन्य काम करने के लिए भी तत्पर रहना चाहिए।

केंद्र पर धम्म संपत्ति का उपयोग

हर साधक चोरी से विरत रहने का शील लेता है। धम्मसेवक को भी केंद्र की संपत्ति का अपने व्यक्तिगतहीत हेतु अपयोजन नहीं करना चाहिए। प्रबंधक की पूर्वानुमति के बिना वे किसी प्रकार का सामान अपने निवास-स्थान या निजी उपयोग हेतु न ले जायं।

केंद्र पर दीर्घकालिक सेवा

केंद्र के आचार्य से परामर्श करके उनकी अनुमति लेकर गंभीर साधक धम्म के प्रायोगिक एवं सैद्धांतिक पक्ष में पुष्ट होने के लिए केंद्र पर दीर्घकालिक सेवा दे सकते हैं। इस अवधि में आचार्य एवं व्यवस्थापन से परामर्श करके वे कुछ शिविरों में बैठें एवं अन्य में सेवा दें।

दान

साधकों की अनुशासन संहितामे स्पष्ट किया गया है कि शिविरों में तथा केंद्र में प्रदत्त प्रशिक्षण, भोजन, निवास व अन्य सुविधाएं साधकों के लिए पूर्णतया निःशुल्क हैं। यह धम्मसेवकों पर भी लागू है।

शुद्ध धम्म का प्रशिक्षण सदैव निःशुल्क दिया जाता है। भोजन, निवास व अन्य सुविधाएं पुराने कृतज्ञ साधकों द्वारा उदार चित्त से दिये गये दान से सुलभ हो पाती हैं। धम्मसेवकों को इसे सदैव स्मरण रखना चाहिए और उनको दान के अपव्यय को बचाते हुए उत्तम सेवा देनी चाहिए जिससे कि दानदाताओं को उनके द्वारा दिये गये दान का अधिकाधिक लाभ प्राप्त हो। उसी प्रकार धम्मसेवक भी दूसरों के हितार्थ दान देकर अपनी दान पारमी विकसित कर सकते हैं। आखिर शिविर एवं केंद्र कृतार्थ साधकों के दान से ही चलते हैं।

कोई धम्मसेवक स्वयं अपने लिए किसी प्रकार की राशि या अन्य वस्तु न दें। प्रत्येक दान औरों के हित के लिए ही हो। धम्मसेवा भोजन, निवास आदि के भुगतान के लिए कदापि न हो। बल्कि सेवा स्वयं अपने हित में हो, क्यों कि उससे धर्म का अमूल्य प्रशिक्षण मिलता है।

संक्षेप में...

धर्मसेवकों को आचार्य एवं प्रबंधन के आदेशों का पालन करते हुए सेवा करनी चाहिए। उन्हें साधकों की हर प्रकार से सहायता करनी चाहिए एवं उनको किसी भी प्रकार का व्यवधान न हो इसका ध्यान रखना चाहिए। उनका व्यवहार उन लोगों को प्रेरणा दे जो धम्म में संदेह या शंका रखते हैं तथा जहां वे धम्म की ओर प्रेरित हैं वहां अधिक श्रद्धा का प्रादुर्भाव हो। उन्हें हर समय खयाल रखना चाहिए कि उनकी सेवा का हेतु औरों की सहायता करने के साथ-साथ स्वयं को धम्म में प्रतिष्ठित करना है।

यदि यह नियम आप को दुःसाध्य लगें तो आप तुरंत आचार्य या प्रबंधक से स्पष्टीकरण प्राप्त कर लें।

आपकी सेवा आपको धम्म-पथ पर, निर्वाण की ओर, दुःखों से विमुक्ति एवं सच्चे सुख की दिशा में अग्रसर होने में सहयोगी सिद्ध हो।

सबका मंगल हो।


आचार्य गोयन्काजी का धम्मसेवा के महत्त्व पर संदेश

धम्मसेवा करते समय आप यह सीखते हो कि धर्म का दैनंदिन जीवन में कैसे प्रयोग किया जाय। आखिरकार जीवन में जो जिम्मेदारिया है उससे भागना धर्म नहीं है। शिविर के समय या किसी विपश्यना केंद्र की छोटी दुनिया में साधकों से धम्मानुसार व्यवहार कर परिस्थितियों को धम्मानुसार निपटाकर आप अपने को तैयार करते हो ताकि बाहरी दुनिया में भी विभिन्न परिस्थितियों में धम्मानुसार काम कर सको। इसके बावजूद कि अनचाही घटनाएं घटती ही रहती हैं, आप अपने मस्तिष्क के संतुलन को बनाये रखने के लिये अभ्यास करते ही रहते हो और इसके प्रतिक्रिया स्वरूप मैत्री और करुणा की भावना विकसित करते हो। यही शिक्षा है जिससे आप प्रवीणता हासिल करते हो। आप ठीक वैसे ही साधक हो जैसे शिविर में बैठे साधक।

विनम्रतापूर्वक सेवा करते हुए सिखते ही रहो। यह सोचते रहो कि मैं यहां प्रशिक्षण प्राप्त कर रहा हूं, इस बात का प्रशिक्षण कि बदले में बिना किसी वस्तु की आशा किये मुझे निरंतर सेवा का अभ्यास करना है। मैं सेवा कर रहा हूं ताकि दूसरे लोग धर्म से लाभान्वित हो सकें। मुझे एक आदर्श प्रस्तुत कर उनकी सहायता करनी चाहिए और ऐसा कर अपनी भी सहायता करनी चाहिए।

आप सभी धम्मसेवक धम्म सेवा भाव में पुष्ट हों। दूसरों के लिए सद्भाव मैत्री और करुणा के भाव विकसित करना सीखो। आप सभी धम्म में प्रगति करो और सच्ची शांति, सच्ची मैत्री और सच्चे सुख का अनुभव करो।

आचार्य सत्यनारायण गोयन्का